महात्मा गांधी बीसवीं सदी के एक ऐसे चिंतक एवं प्रवक्ता हैं जिन्होंने अपना
संपूर्ण जीवन सत्य और अहिंसा के प्रयोग में बिताया और अपने जीवन की आहुति दे
दी। अहिंसा के व्यावहारिक प्रयोग ने उन्हें जगत में महामानव के रूप में
प्रतिष्ठित कर दिया। अहिंसा का सिद्धांत गांधी जीवन का श्वास था। अपने जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र (गृहस्थ, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक) में, अहिंसक साधनों
का प्रयोग करते हुए उन्होंने सत्य की साधना की। गांधी जयंती के निमित्त उनके
समग्र जीवन दर्शन और सभ्यता दृष्टि को समकालीन संदर्भों में देखना व समझना
होगा। आज जब हम गांधी पर विचार कर रहे हैं तो स्वतंत्रता आंदोलन केंद्र में
नहीं है अपितु संपूर्ण विश्व की व्यवस्था और मानव मात्र की स्वतंत्रता का
विचार महत्वपूर्ण है।
आज सवाल है कि यह दुनिया हमारी नई पीढ़ी को कैसे सुरक्षित मिलेगी? सबसे बड़ा
प्रश्न यह भी है कि जलवायु परिवर्तन, हिंसा, आतंकवाद, नस्लवाद आदि के दुश्चक्र
से दुनिया को कैसे बचाया जा सकता है? ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, लालच से मुक्त
एक ऐसा विश्व आने वाली पीढ़ी को दे सकें, जिसमें वह सुरक्षित, स्वस्थ और
शांतिमय जीवन जी सके। इसके लिए यह आवश्यक है कि गांधी दर्शन को वैकल्पिक
सभ्यता के रूप में समझने की कोशिश की जाए। भारत में आदिकाल से ही अहिंसा की
अविच्छिन्न और गहरी परंपरा रही हैं। भारतीय धर्मों में अहिंसा को सबसे बड़ा
कर्तव्य माना गवा है और यह 'सोSहं तत्वमSसि" जीवन की आध्यात्मिक एकता में
विश्वास को निरूषित करता है। अहिंसा को मनुष्य के बलिदानमय जीवन के पांच नैतिक
सद्गुणों (सत्य, अहिंसा, प्रेम, सेवा और शांति) में से एक बताया गया है।
विगत चार सौ वर्ष औद्योगिकीकरण और पुनर्जागरण के रहे हैं। इस कालखंड में
आधुनिकतावादी सोच ने हजारों-हजार वर्ष की सभ्यता और मनुष्य के समक्ष अस्तित्व
का संकट खड़ा कर दिया है। इतना संत्रास और भय का वातावरण मानव जाति के इतिहास
में कभी नहीं रहा है, तो स्वाभाविक है कि इस संत्रास से निकलने के लिए मार्ग
तलाशने होंगे और यह प्रतिस्पर्धा, अधिकारिता तथा अन्य को शासित करने की
मनोवृत्ति से नहीं आ सकती है। आज मानवीय सभ्यता के लिए जरूरी है कि करुणा,
दया, परोपकार, संवेदना युक्त मनुष्य के हित और कल्पाण पर आधारित व्यवस्था के
बारे में विचार किया जाय और ऐसी स्थिति में गांधी एकमात्र विकल्प के रूप में
दिखाई देते हैं।
महात्मा गांधी हिंसा से त्रस्त विश्व और हिंसामूलक सभ्यता के स्थान पर अहिंसा
पर आधारित सभ्यता दृष्टि के प्रस्तावक हैं। एक ऐसे सामाजिक परिदृश्य के
अभिकल्पक हैं, जिसमें मनुष्य के लिए मनुष्य, साधन न होकर साध्य होगा और
क्रियाशील मनुष्य के लिए येन-केन-प्रकारेण साध्य की सिद्धि लक्ष्य न होकर,
सत्य साधनों से ही सिद्धि प्राप्त होगी, इस विश्वास का दृढ़ीकरण है। इसीलिए
गांधी की दृष्टि में अहिंसा, हिंसा का अभाव या निषेध नहीं है अपितु विधायात्मक
अवधारणा है, एक सकारात्मक सभ्यता दृष्टि है जो सबके हित और कल्याण पर निर्भर
है, जो कर्तव्यों पर आधारित समाज व्यवस्था का प्रतिपादन करता है। आधुनिक समाज
व्यवस्था अधिकार केंद्रित समाज व्यवस्था है। अधिकारिता युक्त मनुष्य की
निर्मिति के प्रयास में मानव समाज, स्वार्थ से वशीभूत होकर अंततः एक अनुपस्थित
तत्व हो गया है। समाज तो केवल कर्तव्यभाव से जीवित रहता है। त्यागपूर्वक उपभोग
की दृष्टि अपरिहार्य एवं प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य के अधिकार का
मूल है। यह संसार मनुष्य केंद्रित नहीं है अपितु जीव केंद्रित है और चेतन है।
ऐंद्रिक कामनाओं की पूर्ति की अपेक्षा बौद्धिक, चैततिक अभीप्साओं की पूर्ति
प्राणी मात्र का लक्ष्य है। गांधी की अहिंसा निर्वैरता और निर्भयता के समाज की
निर्मिति हैं। यह दूसरों के दुःख को समझने और दुःखी जन के दुःख को दूर करने के
उद्यम का सिद्धांत है। यह एक ऐसी जीवन प्रणाल्री है जो मनुष्य को पशु सुलभ
ऐंद्रिक जीवन से मुक्त करते हुए मानवीय गुणों से संपन्न करती है। भारतीय
दर्शन की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह पशु से पशुपति होने की यात्रा है।
आहार, निद्रा, भय, मैथुन इत्यादि मूल जैविक अभिवृत्तियों से नियंत्रित होना ही
पशुता है। इन वृत्तियों पर नियंत्रण तथा नियमन करते हुए चैतसिक आनंद की खोज
पशुपति होना है। गांधी के विचारों को हमें इन्हीं संदर्भों में देखना चाहिए।
इतिहास के कालक्रम में गांधी को देखना आंदोलनकारी गांधी को देखना है लेकिन वे
अपने जीवन की परिपक्वावस्था (पैंसठ वर्ष की उम्र प्राप्त करने के बाद) में
जीवन के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मेरा एकमात्र उद्देश्य केवल और
केवल रचनात्मक कार्यक्रम है। वस्तुतः गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम सृजन,
संरक्षण और संहार का एक त्रिक् है। शत्रु बुद्धि का नाश, मनुष्य के शाश्वत
षड़् रिपुओं यानी मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध इत्यादि विचार के
नाश से ही संभव होगा। वैचारिक अभिवृत्तिजन्य दोषों से मुक्ति उपदेश से नहीं,
कर्म से ही संभव है। इसलिए गांधी व्यक्ति निर्माण के साधन के रूप में रचनात्मक
कार्यक्रम की प्रस्तावना करते हैं। गांधी के रचनात्मक कार्य लोक संस्कार का
उपक्रम है। प्राकृत को विकृत बनाने की यूरोपीय जीवन प्रणाली, गांधी के लिए
मनुष्य विरोधी सभ्यता है इसलिए यह आसुरी सभ्यता है। प्राकृत को संस्कृत बनाना,
प्रकृति को सुसंस्कृत करना केवल और केवल विधायात्मक रचनात्मक दृष्टिकोण से ही
संभव है और रचनात्मकता, निर्वैरता, अभय, परदुःखकातरता के दिव्य भाव से संपन्न
मनुष्य के द्वारा ही साध्य है। गांधी की अहिंसा पर आधारित सभ्यता दृष्टि
मशीनीकरण के स्थान पर मानवीकरण का यत्न है। हिंसा के हथियारों के विरुद्ध
सत्य, शील, स्नेह, दया इत्यादि मानवीय गुणों की विजय का उद्घोष है और अंततः
कहा जा सकता है कि यह प्रत्येक मनुष्य के द्वारा उसकी स्वराज की सिद्धि का
संकल्प है। गांधी ने व्यापक और व्यावहारिक संदर्भों में अहिंसा को न सिर्फ
अपने जीवन का धर्म बनाया था बल्कि उन्होंने समाज, जीवन और परिवार के संपूर्ण
संदर्भों में अहिंसा के प्रयोग किए। उनका जीवन ही अहिंसा की प्रयोगशाला है।
वर्तमान हिंसायुक्त परिदृश्य में यह सवाल और वाजिव हो गया है कि हम
गांधी-विचारों को नई पीढ़ी में संचारित करें।